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यदि॑न्द्र॒ याव॑त॒स्त्वमे॒ताव॑द॒हमीशी॑य। स्तो॒तार॒मिद्दि॑धिषेय रदावसो॒ न पा॑प॒त्वाय॑ रासीय ॥१८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad indra yāvatas tvam etāvad aham īśīya | stotāram id didhiṣeya radāvaso na pāpatvāya rāsīya ||

पद पाठ

यत्। इ॒न्द्र॒। याव॑तः। त्वम्। ए॒ताव॑त्। अ॒हम्। ईशी॑य। स्तो॒तार॑म्। इत्। दि॒धि॒षे॒य॒। र॒द॒व॒सो॒ इति॑ रदऽवसो। न। पा॒प॒ऽत्वाय॑। रा॒सी॒य॒ ॥१८॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:32» मन्त्र:18 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजपुरुषों को क्या चाहना योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (रदावसो) करोदनों में वसनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! (यत्) जो (त्वम्) आप (यावतः) जितने के ईश्वर हों (एतावत्) इतने का मैं (ईशीय) ईश्वर हूँ समर्थ होऊँ (स्तोतारम्) प्रशंसा करनेवाले को (इत्) ही (दिधिषेय) धारण करूँ और (पापत्वाय) पाप होने के लिए पदार्थ (न) न (अहम्) मैं (रासीय) देऊँ ॥१८॥
भावार्थभाषाः - हे राजा ! यदि आप हम लोगों की निरन्तर रक्षा करें तो हम आपके राज्य को रक्षा कर पापाचरण त्याग औरों को भी अधर्माचरण से अलग रख कर निरन्तर आनन्द करें ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजपुरुषैः किमेष्टव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे रदावस इन्द्र ! यद्यस्त्वं यावत ईशिषे एतावदहमपीशीय स्तोतारमिद्दिधिषेय पापत्वाय नाहं रासीय ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रदातः (यावतः) (त्वम्) (एतावत्) (अहम्) (ईशीय) ईश्वरः समर्थो भवेयम् (स्तोतारम्) (इत्) एव (दिधिषेय) धरेयम् (रदावसो) यो रदेषु विलेखनेषु वसति तत्सम्बुद्धौ (न) निषेधे (पापत्वाय) पापस्य भावाय (रासीय) दद्याम् ॥१८॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यदि भवानस्मान्सततं रक्षेत् तर्हि वयं भवतो राष्ट्रस्य च रक्षां विधाय पापाचारं त्यक्त्वाऽन्यानप्यधर्माचारात् पृथग्रक्ष्य सततमानन्देम ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जर तू आमचे निरंतर रक्षण केलेस तर आम्ही तुझ्या राज्याचे रक्षण करू. पापाचरणाचा त्याग करून इतरांनाही अधर्माचरणापासून वेगळे करून निरंतर आनंद भोगू. ॥ १८ ॥